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Tuesday, April 10, 2012

जि‍नगीक मोड़ :: जगदीश मण्‍डल


जि‍नगीक मोड़

पानि‍ बनि‍ पाथर जखन
धरा-धार धड़ै छै।
घाट-बाट बना-बना
जि‍नगीये जकाँ चलै छै।
जइसँ पहाड़ उठै छै
सएह ने सि‍रजए अतल सागर।
अपन-अपन नाओं गढ़ि‍
एक पहाड़ दोसर कहबए सागर।
जहि‍ना धाराक मोड़ घुमै छै
तहि‍ना ने धारो बहै छै।
बाट चलैत बटोही जेना
जि‍नगीक मोड़ पबै छै।
पबि‍ते मोड़ मुरछि‍ जाइ छै
वि‍राग मुरछि‍ कहबै छै।
बनि‍ते मुरछि‍ तुरछि‍ जाइ छै
पकड़ि‍ बाट एक दोसर छोड़ै छै।
मोड़े ने जोड़ो कहबै छै
एक दोसरक बाट केर।
तेहने ठीन ने देखि‍ पड़ैत
बाट-घाटक उनट-फेर।
जहि‍ना-जहि‍ना घाट घटै छै
तहि‍ना ने बाटो मरै छै।
चलनि‍हार जेम्‍हर चलै छै
सएह ने चलनसाइर कहबै छै।
चलनसाइरो दुभि‍या जाइ छै
काँटो-कुश जनमै छै।
हवा-बि‍हारि‍ सेहो झकझोड़ए
जे काटि‍ एक पेड़ि‍या बनै छै।
ततबे नै यौ भाय सहाएब?
पानि‍-पाथरक दोसरो कि‍रदानी
बर्खा-बाढ़ि‍ बनबै छै।
गामक-गाम दहा-भसा
उर्वर-उस्‍सर बनबै छै।
नि‍हत्‍था हाथ बौआ रहल
नि‍कम्‍मा पएरो बनल छै।
बनि‍ते हाथ पएर नि‍कम्‍मा
जि‍नगी बोझ बनै छै।
बोझो कि‍ हल्‍लुक-फल्‍लुक
समुद्र पहाड़ बन्‍हल छै।
बेबस बुइध बौरा-बौरा
मर्माहत भेल पड़ल छै।
))((

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