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Tuesday, April 17, 2012

बीटगरहा :: जगदीश प्र. मण्‍डल

बीटगरहा

टुकड़ा-टुकड़ी बनि‍ अंक जहि‍ना
भूमि‍ भाव संग चलए लगै छै।
अकास-पताल बीच अंतर रहि‍तो
हि‍लमि‍ल-झि‍लमि‍ल करए लगै छै।
जूड़ि‍-जूड़ि‍ अक्षर शब्‍द सधै छै
अंक कूदि‍ गुन-भाग करै छै।
चालि‍-ढालि‍ दुनूक दू रहि‍तो
प्रेमक प्रेमी रूप धड़ै छै।
चालि‍ शि‍कारी घोड़ा जहि‍ना
कूदि‍-फानि‍ रस्‍ता बनबै छै
इकाइयो दहाइ चलि‍ तहि‍ना
गरहनि‍ बीट गरहनि‍ रचै छै।
पुरजा-उरजा बनि‍-बनि‍ अंक
पौआ-अधपइ कनमा-कनइ छै।
अणु-परमाणु जुग जे बनौ
अंक अंक भकराड़ बनल छै।
रूप-गुण सभ ओहि‍ना-ओहि‍नी
मूल तत्‍व आधार बनल छै।

बि‍नु बीटे ठाढ़ केना रहतै
नमगर-छड़गर कड़ची बाँस।
वंशो-वृक्ष तहि‍ना रहै छै
धड़ि‍-धीर धेने छी आस
अटपट-लटपट खेल चलै छै
आमक गाछ महकारी फड़ै छै
गंध आम पसारि‍-पसारि‍
मीठ-तीत सेहो बनबै छै।
भाव-भूमि‍ भवजाल पसारि‍
नजरि‍ खि‍रा ताकैत रहै छै।
दौजी-मुड़हन समेटि‍-समेटि‍
हवा बीच उड़बैत रहै छै।
बि‍र्ड़ो बीच बौआइत-ढहनाइत
देखि‍नि‍हारो देखैत रहै छै।
पकड़ि‍ पेट खोंइचा छोड़ि‍
दूधक फेड़-फाड़ देखै छै।
मुदा तैयो, आंगुर चुट्टा बनि‍
बीछि‍-बीछि‍ बीआ पकड़ै छै।
गनि‍-गनि‍ फुटा-हटा
धरतीक भाव बुझै छै।
सुरकुनि‍या चालि‍ पकड़ि‍-पकड़ि‍
समाढ़-जाल तोड़ैत चलै छै।
जहि‍ना कोंपर रूप बाँस बनि‍
टोपी खोलि‍ अकास धड़ै छै।
पाछू-पछुआ कड़ची सि‍रजि‍
नाओं बाँस धड़बए लगै छै।
आशा-आस लगा एक-दोसर
झूला जि‍नगी झूलए लगै छै।
सोधि‍-ओधि‍ सि‍रजि‍ कोंपर
बीट वंश कहबए लगै छै।
अंति‍म छोर लीला जि‍नगीक
आशा आस लगबए लगै छै।
फड़ि‍-फुला हरि‍आ-हरि‍आ
परि‍वार-गाम बनबए लगै छै।
सर्ग-नर्क उतरि‍ अकास
बोड़ि‍या-बि‍‍स्‍तर समटए लगै छै।


(ई 'बीटगरहा' कवि‍ता श्री रामभरोष कापड़ि‍ भ्रमर जीकेँ समर्पित, -जगदीश प्रसाद मण्‍डल)

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