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Tuesday, April 10, 2012

साँझ-भोर


साँझ-भोर

ककरो साँझ ककरो भाेर छी
ककरो उदय ककरो अस्‍त छी।
दि‍नक अस्‍त साँझ अगर छी
राइति‍क तँ उदये छी।
बारहे घंटा दि‍नो चलै छै
ततबे टा ने राइति‍यो होइ छै।
एक बराबर रहि‍तो रहैत
दू रंग कि‍अए बनल छै?

साँझ साँझ गाबि‍ जगैए
घरमुहाँ जे बाट धड़ैए।
मुदा पराती कहि‍ परात
संग सूर्य सेहो धड़बैए।
अजब रूप दुनि‍याँक बनल छै
नागे बीच मणि सेहो‍ सजल छै।
मुदा मढ़ि‍ मणि‍ आेइ नागकेँ
राइति‍ये बीच प्रकाश करै छै।
दीन दि‍नानाथक पबि‍ते पबैत
हि‍हि‍या-हि‍हि‍या हीन कहै छै।
हनछि‍न-हनछि‍न करि‍ते करैत
दि‍न सानि‍ राति‍ बनबै छै।
राति‍ दि‍न कि‍छु भेद ने कहि‍यो
बनल रहैत सदए सभ लेल।
कालचक्र मानि‍ ज्‍योति‍-अज्‍योति‍
चलैत रहए सदए सबहक लेल।
घर-बाहर जीवन पसरल छै
साजि‍-सजि‍ समेटि‍ फुलडाली
समए-कुसमए पूजि‍-पूजि‍
टहलैत रहए सदए फलबाड़ी।
फुलबाड़ी बनि‍ते फलबाड़ी
जि‍नगीक रस सि‍रजै छै।
पीबि‍ते रस फलैक मन
जि‍नगी जि‍नगीक बूझै छै।
     ))((

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