Pages

Wednesday, April 11, 2012

कि‍छु सीखू कि‍छु करू :: जगदीश मण्‍डल


कि‍छु सीखू कि‍छु करू

जि‍नगीमे कि‍छु करब सीखू
जि‍नगीमे कि‍छु लड़ब सीखू।
सभ जनै छी, सभ देखै छी
अज्ञान-अबोध बनि‍-बनि‍ अबै छी।
सज्ञान-सुबोध तखने बनब
संघर्षक बाट जि‍नगी धड़ब।
एक-दोसरमे तखन बदलै छै
बीच परि‍वर्तनक खेल चलै छै।
जहि‍ना रीतु परि‍वर्तन होइ छै
तहि‍ना कुरीत-सुरीत सेहो बनै छै।
जहि‍ना जाड़ गरमी बदलै छै
तहि‍ना ने गरमि‍यो जाड़ बदलै छै।
पबि‍ते पानि‍ धरती धमकि‍
नवरंगी रूप बना सजै छै।
जि‍नगि‍योक तँ खेल एहि‍ना
अहीमे सभ कि‍छु बनै छै।
कि‍यो भक्‍त भगवान पबैत
तँ कि‍यो पबैत भगवत् भजन।
कि‍यो योद्धा बनि‍ अस्‍त्र उठबए
तँ कि‍यो कुकर्म-सुकर्म गढ़ैत।
आँखि‍ उठा घर-बाहर देखू
अपन कालखंड अपने परखू।
पबि‍ते परेखि‍ जीवन-मौसम केर
साओनक सोहनगर सुगंध बि‍‍खरू।
     ))((

No comments:

Post a Comment