मन-मणि :: जगदीश मण्डल
मन-मणि
मढ़ि-मढ़ि मणि मनकेँ
प्रज्वलित करू तनकेँ
धुआ-काया पकड़ि-पकड़ि
दिव्यभूमिक चिन्हू धनकेँ।
जखने मन मणि बनत
छिटकत ज्योति धरतीपर।
अपन बाट अपने देखब
हँसैत चलब पृथ्वीपर।
कानि-कानि दुख मेटबए सभ
नाचि-नाचि नचारी गबैए।
आर्त स्वर गाबि आरती
अपन-अपन बेथा सुनबैए।
छी अमूल्य मानव तन
चिन्ह बिना औषधि भारी।
चेतू-चेतू आबो चेतू
कहै छी अपने भैयारी।
श्रेष्ठ जीव मानव कहबै छै
मानवता उदेश्य जेकर।
मनुख-मनुखक भेद-विभेद
मेटबैक छी धर्म ओकर।
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