धूप-छाँह
हे सूर्ज तोड़े पूछै छिअह?
ऊपर रहि तँू किअए बनौने,
एना छह दोहरी बेवहार।
अपन रश्मि आगू बढ़बैमे
धरतीकेँ किअए केने अन्हार।
केना रोकि तोरा दइ छह
वन-उपवन ओ जंगल।
आस लगौने धरतियो बैसल
करै छह किअए मंगल-अमंगल।
बिहुँसि सूर्ज बाजल विह्वल!
कोनो भेद-भाव कखनो नै
मनमे कहियो उठैए।
जे जतए पकड़ि-पकड़ि
से अपन काज करबए लगैए।
जँ तोहू करबए चाहै छह
छाहरि छोड़ि निकलह बाहर।
जखने नजरि मिला-चलबह
तखनेसँ संग पूरए लगबह।
मर्माहत भऽ पुकारि धरती-
केना कऽ घुसुकि पेबै,
चारू दिस घेड़ने-ए।
केना कऽ संग पाएब तोहर
कानि-कानि मन कहैए।
))((
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