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Wednesday, April 11, 2012

प्रि‍य :: जगदीश मण्डल


प्रि‍य

उठि‍ते वेदना उधि‍आए लगए जब
रच-वि‍चड़ी हुअए लगै छै।
कर्ण-प्रि‍य, प्रि‍य वाणी वीणा
रूप माधुर्य सि‍रजए लगै छै।
दूर-दूर जंगल पसरल
पसरल छै ग्रह-नक्षत्र सागर
तरेगन छि‍ड़ि‍आ-बि‍ति‍आ
सजबए रूप पठार-पहाड़।
धरती ऊपर शून्‍य बसल छै
नाओं धरौने अपन अकास।
चुसि‍ रस माटि‍-पानि‍क
संग चलैए रौद-वसात।
नै छै ओर-छोड़ अकासक
एक छोड़ धरती धेने छै।
लपेटि‍-लपेटि‍ लपेटा डोर
वि‍धाता गुड्डी उड़बै छै।
बनि‍ वि‍धकरी वि‍धाता
सि‍रजन शक्‍ति‍ जगबै छै।
कर्मभूमि‍, जन्‍मभूमि‍ ओ मर्मभूमि‍
कला-जीवन सि‍खबै छै।
सुगबा-साड़ी पहीरि‍ देखि‍ कि‍यो
गुणधाम रूप बुझए लगै छै
हंस चालि‍ पकड़ि‍-पकड़ि‍
वाहि‍नी हंस कहबए लगै छै।
चलि‍ चालि‍ हंसवाहि‍नीक
सुरधाम नचबए लगै छै
सजि‍ केश सुकेसि‍नी गढ़ि‍
रूपवती कहबए लगै छै।
गुणवती रूपवती बनि‍-बनि‍
गुणधाम बि‍सरए लगै छै।
गुण पकड़ि‍ जखन सुकेसि‍नी
धार जमुना ि‍सरजए लगै छै।
कारी रंग पकड़ि‍-पकड़ि‍
सि‍रसि‍राइत सि‍र सजबए गलै छै।
शुभ्र-स्‍वभाव, गुण सि‍रजि‍
गुणवती रूप बनबए लगै छै।
गुणवती रूपवती बनि‍-बनि‍
गंगा-सरस्‍वती मि‍लए लगै छै।
जइठाम तीनू धार सटए
त्रि‍वेणी घाट बनबए लगै छै।
घाट-स्‍नान कऽ तीनू सहेली
अलड़ैत-मलड़ैत चलए लगै छै।
भेद-कुभेद मेटा-मेटा
गंगा-सागर जा डुमै छै।
सम्‍पन्न शब्‍द, शैली सम्‍पन्न
शब्‍द कोष सि‍रजए लगै छै।
जड़ि‍-छीप पकड़ि‍ भाषाक
संसार-साहि‍त्‍य गढ़ए लगै छै।
अपन-अपन अस्‍त्र-शस्‍त्र सजि‍
पथ-प्रदर्शन करए लगै छै।
पथ प्रि‍य प्रेमी पाबि‍-पाबि‍
पथि‍क पथ चलए लगै छै।
लोक अनेक, दुनि‍याँ अनेक
पथ अनेक अनेक पथबाह।
अपन खेत जहि‍ना जोतै छै
बरदक संग अपन हरबाह।
बेथा-कथा सम्‍पन्न गढ़ि‍,
कवि‍त्त संग मि‍लि‍ चलै छै
दोहा, चौपाइ, छप्‍पय ओ कवि‍त्त
संग मि‍लि‍ कवि‍ता कहबै छै।
आँखि‍, कान, नाक मि‍लि जहि‍ना
रूप देह सजबै छै।
मुँह बीच जि‍हि‍या पकड़ि‍
वाणी वीणा तार खि‍ंचै छै।
तड़पि‍-तड़पि‍ मनक बेथा
दुबट्टी ओझर जा फँसै छै।
शब्‍द वाण जा-जा कहै छै
मुदा ओझर कहाँ बदलै छै।
ओझर जखन चालि‍ पकड़ि‍
अस्‍त्र हाथ उठबै छै
कर्मभूमि‍ पकड़ि‍ धरती
शब्‍दवाण छोड़ै छै।
नख-सि‍ख रूप जतऽ सजै छै
पूर्णिमाक चान कहबए लगै छै।
पूनोक गौरव गाथा कहि‍-कहि‍
मास सलोनी पबए लगै छै।
जहि‍ना साओनक‍ सिस्‍की सि‍हकए
तहि‍ना सि‍हकए वीणाक तार।
मनोक तार तहि‍ना सि‍हकि‍
सि‍रजि‍ अपन तहि‍ना उद्गार।
जहि‍ना धरती अकास बीच
गाछ-वि‍रीछ लहलह करैत।
तहि‍ना वि‍वेक वि‍चार संग
सदि‍ हँसि‍-गाबि‍ कहैत।
हजार नाम जहि‍ना हरि‍
हजार हाथ तहि‍ना सजल छै।
हजार मन सेहो कहैत
हजार कोस भरल छै।
     ))((

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