शील
द्रवित होइत पानि जहिना
सुख-शील रूप धड़ैए।
तहिना ने गाछो-बिरीछ
फल जीवन, मृत्यु सुख बॅटैए।
जे सृष्टि सिरजए वन-सागर
सएह ने सिरजैत वन-मनुख।
बनि मनुष्य बनबास करए जौं
पबैत राम गुण, शील मनुख।
लस्सा-दूध नाम धड़ए एक
दोसर सागर-सरोवर कहबै छै।
लहू कहि-कहि जीव धड़ए
वनमानुख खून मनुष्य कहबै छै।
सुखा खून अपन अस्तित्व
शील-सिरजक कहबैए।
शीले तँ रूप सु-भावक
बढ़ि रूप गुण पबैए।
पबिते गुण भव-सागरमे
गुणी बनि गुण खिंचैए।
छाती लगा बान्हि बाँस
रस्सीक संग सटैए।
शील जखन गुण बनैए
मनुख गुण खिंचए लगैए
गुणी बनि गुदगुदबैत मन
जीवन सुख संचार करैए।
कखनो रस्सा-कस्सी करैत
कखनो ढील-ढाल चलैए।
शीतल-समीर पाबि कखनो
संगे-संग विश्राम करैए।
दिन-रातिक बीच समीर
कुरुक्षेत्र कहबए लगैए।
उनटि-पुनटि, ओंघरा-पोंघरा
रणभूमि सिरजए लगैए।
जे फल पाबि राम बनबौलनि
समुद्र बीच सघन पुल।
तहियेसँ उड़ए लगलनि
रस्ता-बाटक मिझिराएल धूल।
सएह फल पाबि रचलनि कृष्ण
भारतसँ बनैत महाभारत।
हिमालयसँ समुद्र
आ समुद्रसँ कैलाश महादेव
वएह थिक हमर भारत।
भरत बनि भ्रमैत भॅबर
चरण-सिर धड़ैत जहिना
सएह चरण सुरसरि सिरजि
शिव-कैलाश समाएल जहिना।
पिघलि पाथर जहिना
पाथर वर्फ कहबए लगै छै।
सिरजि शील शीला बनि-बनि
शीला पत्थर कहबए लगैए।
नव रूप सिरजि-सिरजि
जल रूप धारण करैए।
बनि जल-कण उड़ि अकास
हवा संग झुमैत चलैए।
प्रेमी-प्रेमिका बीच दुनू
अश्रु-कण बिल्हैत चलैए।
वएह कण-कणाइत बढ़ि
ओस बनि धरती सिंचैए।
धरिते धड़ा-धरती कन्हुआ
हाथ दुनू छाती सटबैए।
मिलि दुनू सिंगार सजि
वसुदेव रूप धारण करैए।
बनि वसुन्धरा बनि बसुदेव
धार-धाराक धारण धड़ैत।
पबिते जल जलधार बीच
राइ-पहाड़ रूप सजबए लगैत।
बीच-बीच बाट-घाट बनि
रूप श्रृंगार सजबए लगैए।
एक घाट दोसर नदी बनि
झील, सरोवर सागर सिरजैए।
झिलहोरि झील खेलाइत रश्मि
आकर्षित-आकर्षण करैए।
प्रेमास्पद पबिते पाबि
प्रेम-प्रेमी कहबए लगैए।
पाबि प्रेमी प्रेमी जखन
सागर गंगा मिलए चाहैए।
बॉसक पुल बना समुद्र
गंगा-सागर स्नान करैए।
वएह पवित्र जल सागर
कंद पहाड़ बनैए।
बैसि गुफा जोगी-जती
भगवत-भजन करैए।
जहिना भूखल पेट मांगए
तहिना ने मनो मंगै छै।
भोज्यक तृष्णा दुनूक बीच
भजन-भोजन कहबैत चलैए।
बनि शीला समुद्र बीच
पहाड़ बनि-बनि ठाढ़ होइए
शिकारी पहाड़ घूमि-घूमि
मन-माफित शिकार करैए।
सभ दिनसँ होइत आएल
देव-दानवक बीच रग्गड़
रगड़ि-रगड़ि रगड़ैत चलि
मुंडे-मुंड पसरल झग्गर।
झग्गड़ दू दिस चलै छै
एक-रगड़ि सुरधाम बढ़ै छै।
तँ दोसर धरती धारण करै छै।
स्वर्ग-नर्कक विचमानि कऽ
अकास-सँ-धरती खसबै छै।
रंग-बिरंगक सृजित कऽ
दिशा-हीन बनबए लगै छै।
उपदेशक तँ सभ बनैए
अपना ले की सभ सोचैए।
असार-सार संसार बूझि-बूझि
शील-धरम कहाँ बूझैए।
जिनगीक शील धर्म छी
एक दिन धारण करए पड़त।
राम-नाम सत् छी
अंतिम दिन कहए पड़त।
))((
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